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माताजी की अनुभूतियां
अनुभूतियों का लेखन
तत्त्वत: अनुकम्पा और कृतज्ञता चैत्य गुण हैं । वे चेतना में तभी प्रकट होते हैं जब चैत्य सत्ता क्रियात्मक जीवन में भाग लेती है ।
प्राण और भौतिक उन्हें दुर्बलताओं के रूप में अनुभव करते हैं, क्योंकि वे उनके संवेगों की मुक्त अभिव्यक्ति को दबा देते हैं, जो सामर्थ्य की शक्ति पर आधारित होते हैं ।
हमेशा की तरह, जब मन अपर्याप्त रूप से प्रशिक्षित होता है, तो प्राण सत्ता का साथी और भौतिक प्रकृति का दास होता है, इस प्रकृति के विधान अपनी अर्धचेतन यान्त्रिकी प्रक्रिया में इतने अभिभूत करने वाले होते हैं कि, मन उन्हें पूरी तरह समझ नहीं पाता । जब मन पहली चैत्य गतियों की अभिज्ञता में जागता है तो वह अपने अज्ञान द्वारा उन गतियों को विकृत कर देता है । वह अनुकम्पा को दया में या ज्यादा-से-ज्यादा उदारता में, और कृतज्ञता को बदला चुकाने की इच्छा में बदल देता है ओर फिर धीरे-- धीरे मान्यता देने और समादर करने की सामर्थ्य में बदल देता है ।
जब सत्ता में चैत्य चेतना सर्वसमर्थ हो तभी उन सबके लिए जिन्हें किसी भी रूप में सहायता की आवश्यकता हो अनुकम्पा और जो कुछ किसी भी रूप में भागवत उपस्थिति और कृपा को प्रकट करता है उसके प्रति कृतज्ञता अपने मौलिक उज्ज्वल शुद्ध रूप में प्रकट होती है । तब अनुकम्पा में त्यक्त गौरव का भाव या कृतज्ञता में हीनता का कोई पुट नहीं होता । १५ जून, १९५२
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भगवान् सर्वत्र हैं, सबमें हैं, और वे सर्वम् हैं । हां, 'अपने' सार तत्त्व और 'अपनी' परम सद्वस्तु में । लेकिन प्रगतिशील भौतिक अभिव्यक्ति के जगत् में, तुम्हें भगवान् जैसे हैं उनके उस रूप के साथ नहीं बल्कि भगवान् जैसे होंगे, उस रूप के साथ तदात्म होना चाहिये । ३० जून, १९५२ ३०९
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